Independence Day 2024: भगत सिंह और उनके साथी जेल में भूख हड़ताल पर थे। उन्होंने विधानसभा में बम विस्फोट किया था, लेकिन इसका उद्देश्य किसी को नुकसान पहुँचाना नहीं था। वे भाग सकते थे, लेकिन गिरफ्तारी को स्वीकार कर लिया और अब भूख हड़ताल पर हैं। क्या इसका मतलब था कि वे अपनी लड़ाई की दिशा बदल रहे थे? नहीं, वे विभिन्न तरीकों से संघर्ष का संदेश दे रहे थे। वे यह स्पष्ट करना चाहते थे कि उनका मुख्य उद्देश्य हत्या या आतंक फैलाना नहीं है। उनके पास विचार थे, संघर्ष की योजनाएँ थीं और इन्हें लागू करने का साहस और धैर्य भी था। वे संघर्ष की प्रकृति को समय और परिस्थितियों के अनुसार निर्धारित कर रहे थे।
जब भगत सिंह और उनके साथी जेल में थे, तो उन्होंने भारतीय और यूरोपीय कैदियों के बीच भेदभाव के विरोध में भूख हड़ताल शुरू की। उनकी यह भूख हड़ताल जानवरों के साथ हो रहे दुर्व्यवहार और राजनीतिक कैदियों को उचित सुविधाएं न मिलने के खिलाफ एक संघर्ष था।
भगत सिंह के साथ जतिन, बटुकेश्वर भी भूख हड़ताल पर
असेंबली बम कांड में दोषी ठहराए जाने के बाद भगत सिंह को मियांवाली जेल में और बटुकेश्वर दत्त को लाहौर की बोस्ट्रल जेल में रखा गया। भगत सिंह ने 15 जून 1929 से भूख हड़ताल शुरू की। इसी दौरान, बटुकेश्वर दत्त और अन्य साथी भी लाहौर जेल में भूख हड़ताल पर थे। सॉन्डर्स हत्याकांड में भगत सिंह को लाहौर जेल भेजा गया, और उनकी भूख हड़ताल की खबर फैलते ही अन्य जेलों के राजनीतिक कैदी भी भूख हड़ताल पर चले गए। इस खबर ने अखबारों में जगह बनाई और समर्थन में कई स्थानों पर प्रदर्शन, बैठकें और भूख हड़तालें शुरू हो गईं।
लाहौर जेल में भूख हड़ताल में जतीन्द्रनाथ दास भी शामिल थे। सॉन्डर्स हत्याकांड को लाहौर षड्यंत्र केस के रूप में जाना गया, जिसमें भगत सिंह और जतीन्द्रनाथ दास दोनों आरोपी थे। असेंबली बम विस्फोट का बम जतीन्द्रनाथ ने ही बनाया था। भूख हड़ताल शुरू करने से पहले उन्होंने भगत सिंह को भावनात्मक रवैये से बचने की सलाह दी और चेतावनी दी कि यह संघर्ष लंबा चलेगा, और यदि भूख हड़ताल शुरू की है तो उसे बीच में ही समाप्त करने से बेहतर है। जतीन्द्रनाथ भूख हड़ताल के खिलाफ नहीं थे, लेकिन वे अपनी बात अपने सहकर्मियों को समझाना चाहते थे। उन्होंने अपने साथी की सलाह मानते हुए भूख हड़ताल का नेतृत्व किया और अंतिम सांस तक इसे जारी रखा।
‘सत्रह वर्ष की आयु में कूद पड़े थे स्वतंत्रता आन्दोलन में’
जतीन्द्रनाथ दास का जन्म 27 अक्टूबर 1904 को कलकत्ता में हुआ था, और वे एक साधारण बंगाली परिवार से थे। उनके पिता का नाम बंकिम बिहारी दास था। जब जतीन्द्रनाथ नौ साल के थे, उनकी मां सुहासिनी देवी का निधन हो गया। दसवीं कक्षा के दौरान, सत्रह साल की उम्र में ही उन्होंने असहयोग आंदोलन में भाग लिया और क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल हो गए। वे अनुशीलन समिति का हिस्सा बने और बी.ए. की पढ़ाई के दौरान जेल गए। मैमनसिंह जेल में कैदियों के साथ हो रहे दुर्व्यवहार के विरोध में उन्होंने भूख हड़ताल शुरू की और 21 दिन तक अनशन जारी रखा। अंततः जेलर की माफी मांगने पर उन्हें रिहा कर दिया गया।
सान्याल के माध्यम से जतीन्द्रनाथ दास हिंदुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन के सदस्य बने, जहां कई क्रांतिकारी सक्रिय थे। उन्होंने सुभाष चंद्र बोस के करीब आकर उनके साथी के रूप में काम किया। भगत सिंह ने उन्हें फिर से क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल होने का आग्रह किया। इसके बाद, वे आगरा पहुंचे और बम बनाने का कार्य किया। 14 जून 1929 को उन्हें लाहौर जेल में बंद कर दिया गया।
‘बेअसर…मोतीलाल, जवाहरलाल और जिन्ना की अपीलें’
13 जुलाई 1929 को लाहौर जेल में जतीन्द्रनाथ दास ने अनशन शुरू किया। भगत सिंह और उनके अन्य साथियों का अनशन भी काफी समय तक जारी रहा। इस दौरान अखबारों में अनशनकारियों की बिगड़ती स्थिति की खबरें प्रकाशित होती रहीं, जिससे जनता का गुस्सा बढ़ता गया। सरकार की लापरवाही को लेकर पंडित मोतीलाल नेहरू ने आलोचना की और कहा कि कैदी निजी स्वार्थ के लिए नहीं, बल्कि एक व्यापक उद्देश्य के लिए भूख हड़ताल पर हैं। जवाहरलाल नेहरू ने जेल में भगत सिंह और उनके साथियों से मुलाकात की और एक बयान जारी किया, जिसमें उन्होंने कहा, “हमारे नायकों की हालत देखकर मुझे गहरा दुख हुआ है। उन्होंने अपनी जान को जोखिम में डाला है और वे चाहते हैं कि उनके साथ राजनीतिक कैदियों जैसा व्यवहार किया जाए। मुझे उम्मीद है कि इस बलिदान से वे अपने लक्ष्यों में सफल होंगे।”
12 सितंबर 1929 को केंद्रीय विधानसभा में अपने भाषण में मुहम्मद अली जिन्ना ने पूछा, “क्या आप इन पर मुकदमा चलाना चाहते हैं या इन्हें मौत के घाट उतारना चाहते हैं?”
‘वह उदास दोपहर, सूरज के ऊपर उमड़ रहे थे काले बादल’
सरकार ने भूख हड़ताल को समाप्त कराने के लिए विभिन्न उपाय अपनाए। उन्होंने बैरक में बेहतर भोजन और पेय पदार्थ रखे और बर्तनों में पानी की जगह दूध भर दिया, ताकि भूख हड़ताल करने वालों के संकल्प की परीक्षा की जा सके। इसके बावजूद, हड़ताल करने वालों ने हार मानने से इनकार कर दिया और उन्हें बेहतर भोजन और सुविधाओं का आश्वासन दिया गया। हालांकि, हड़ताल करने वाले इन झूठे वादों को पहचान चुके थे। पंजाब जेल जांच कमेटी की रिपोर्ट के बाद कुछ कैदियों ने अपनी भूख हड़ताल समाप्त कर दी, लेकिन दुलीचंद को सूचित किया गया कि भूख हड़ताल स्थगित की गई है और अगर आश्वासन पूरे नहीं हुए, तो वे फिर से हड़ताल करेंगे।
जतीन्द्रनाथ दास, भगत सिंह, बटुकेश्वर दत्त और अन्य साथी अपनी स्थिति पर दृढ़ थे। इस दौरान, जतीन्द्रनाथ की हालत लगातार बिगड़ती गई। सरकार ने उन्हें जमानत पर रिहा करने की पेशकश की, और कुछ लोगों ने जमानत भी जमा की, लेकिन जतीन्द्रनाथ ने पैरोल अस्वीकार कर दी। उन्हें जबरदस्ती खिलाने की कोशिशें नाकाम रहीं और उनकी नाक की नली निकाल दी गई, जिससे उनके फेफड़े गंभीर रूप से क्षतिग्रस्त हो गए। स्थिति और भी गंभीर हो गई और भगत सिंह उनकी हालत को लेकर बेहद चिंतित थे। भगत सिंह के आग्रह पर, जतीन्द्रनाथ ने एनीमा के जरिए अपना पेट साफ करने को सहमति दी, लेकिन भूख हड़ताल पर अड़े रहे।
13 सितंबर 1929 को, 63वें दिन, दोपहर 1 बजे, काले बादलों ने सूरज को ढक लिया और सूरज अप्रत्याशित रूप से अस्त हो गया। जतीन्द्रनाथ दास ने मातृभूमि के लिए अपना जीवन बलिदान कर दिया, उनकी सांसों की डोर टूट गई और उनका अजेय संकल्प समाप्त हो गया।
जतीन्द्रनाथ दास के बलिदान ने भगत सिंह और अन्य क्रांतिकारियों को गहरे दुख और प्रेरणा दी। उनकी मौत से भयभीत कुछ साथी भी आंसू नहीं रोक पाए। यह खबर जेल से बाहर फैल गई और हर कोई जेल की ओर बढ़ने लगा। केवल 63 दिन की भूख हड़ताल क्यों? अपने 25 साल के छोटे जीवन में जतीन्द्रनाथ ने अपनी हर एक बूँद रक्त स्वतंत्रता संग्राम के लिए समर्पित कर दी। उनकी शहादत ने लोगों को गहरा दुख और नाराजगी दी, लेकिन वे अपने प्यारे साथी की शहादत पर गर्वित भी थे।
जतीन्द्रनाथ ने अपनी छोटी लेकिन प्रभावशाली जिंदगी को एक कठिन रास्ते पर चलकर देश की स्वतंत्रता के लिए अर्पित किया। गुलामी के अत्याचार से मुक्ति पाने और देशवासियों की जिंदगी को बेहतर बनाने के लिए उन्होंने मौत को स्वीकार किया। उन्हें गुलाबों का बहुत शौक था, और उनकी अंतिम यात्रा में गुलाब की पंखुड़ियों की बारिश ने उन्हें और उनकी यात्रा को ढक दिया। उनका शरीर अंतिम दिनों में बहुत कमजोर हो गया था। इसीलिए सुभाष चंद्र बोस ने उन्हें “हमारे समय के पिता” के रूप में सम्मानित किया।
अंग्रेजों के लिए खतरे की घंटी थी जीतेन्द्र की शहादत
लाहौर जेल से जतीन्द्रनाथ दास की अंतिम यात्रा शुरू होने के साथ ही उनके सम्मान में भीड़ उमड़ पड़ी। अनारकली से रेलवे स्टेशन की ओर बढ़ते हुए, सड़कों के दोनों किनारों और घरों की बालकनियों पर भारी भीड़ ने स्पष्ट कर दिया कि जतीन्द्रनाथ और क्रांतिकारियों के प्रति लोगों के दिलों में कितनी गहराई से सम्मान और प्रेम है। हर व्यक्ति उस अमर शहीद के अंतिम दर्शन के लिए तरस रहा था। खुली गाड़ी में चल रही इस यात्रा पर लगातार फूलों और सिक्कों की बारिश हो रही थी। लोग इन सिक्कों को अपने बच्चों के ताबीज और गहनों में बदलने के लिए बेताब थे।
ट्रेन के मार्ग के हर स्टेशन पर भारी भीड़ अपने प्यारे बेटे को श्रद्धांजलि देने के लिए उमड़ी। दिल्ली में लाखों लोग उनकी अंतिम यात्रा में शामिल हुए। रात के समय ट्रेन कानपुर पहुंची, जहां पंडित जवाहरलाल नेहरू और गणेश शंकर विद्यार्थी भी भारी भीड़ के साथ उपस्थित थे। इलाहाबाद में कमला नेहरू ने भीड़ के सामने श्रद्धांजलि अर्पित की। हावड़ा स्टेशन पर सुभाष चंद्र बोस और दिवंगत देशबंधु चितरंजन दास की पत्नी बसंती दास समेत कई नेता भी उपस्थित थे। बटुकेश्वर दत्त की बहन प्रमिला देवी अपने भाई जतीन्द्रनाथ की याद में आंसू बहा रही थीं। स्टेशन से लेकर सड़कों तक हर ओर लोग ही लोग थे, और यह सिलसिला लगातार जारी रहा। कलकत्ता पहुंचने पर भी, देश के प्यारे बेटे की यात्रा में हर कदम, हर नज़र पर थी।
हुगली नदी के किनारे बंगाली भाषा में लगे पोस्टरों पर लिखा था, “मुझे भी लाल जतीन्द्रनाथ जैसा बनना चाहिए।” हर तरफ फूलों की बारिश और हाथ थामे भीड़ की बेमिसाल तस्वीरें थीं। नारे गूंज रहे थे, “जतीन्द्रनाथ अमर रहें!” और “ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ आवाज उठे!” यह दृश्य दिखा रहा था कि जतीन्द्रनाथ की शहादत ने लोगों के दिलों में गहरा असर छोड़ा है।
लाहौर से कलकत्ता तक, कितनी बड़ी भीड़ इकट्ठी हुई, इसका सही आंकड़ा निकालना मुश्किल है। अकेले कलकत्ता में लगभग दस लाख लोग जतीन्द्रनाथ की अंतिम यात्रा में शामिल हुए। जतीन्द्रनाथ की शहादत ब्रिटिश राज के लिए एक गंभीर चेतावनी बन गई। वायसराय ने लंदन में राज्य सचिव को एक टेलीग्राम भेजा, जिसमें बताया गया कि कलकत्ता में जुलूस अभूतपूर्व आकार का था, जिसमें पांच लाख लोग शामिल हुए थे। भीड़ की संख्या सचमुच बेहद बड़ी थी।
सहानुभूति के इस लहर और सरकार के खिलाफ प्रदर्शन को देखकर, सरकार ने शहीद क्रांतिकारियों के शव उनके परिवारों को सौंपना बंद कर दिया। जनता की गहरी भावनाओं और क्रांतिकारियों के प्रति समर्थन ने ब्रिटिश शासन को हिला कर रख दिया था।
घरों में नहीं जले चूल्हे, रोया था पूरा देश
जतीन्द्रनाथ दास के अंतिम शब्द थे, “मैं नहीं चाहता कि मेरा अंतिम संस्कार पुराने बंगाली रीति-रिवाजों के अनुसार काली बाड़ी में किया जाए। मैं भारतीय हूँ।” उनकी अंतिम इच्छाओं का पूरी तरह से सम्मान किया गया। उनकी शहादत ने पूरे भारत को गहरा दुख और आक्रोश दिया। घरों के चूल्हे बुझ गए, दुकानें और बाजार बंद हो गए। सभाओं और प्रदर्शनों में विदेशी शासन के खिलाफ गुस्से की लहर चल पड़ी। लोग अलग-अलग तरीकों से अपने दुख और विरोध की भावनाएं व्यक्त कर रहे थे।
पंजाब विधान परिषद के दो सदस्यों, गोपी चंद्र नारंग और मोहम्मद आलम ने अपनी सदस्यता से इस्तीफा दे दिया। मोतीलाल नेहरू ने विधानसभा में स्थगन प्रस्ताव पेश किया, जिसमें उन्होंने सरकार पर अमानवीयता का आरोप लगाते हुए कहा कि जतीन्द्रनाथ दास की मौत सरकार की घातक नीतियों का परिणाम है और इससे कई और लोगों की जान भी खतरे में पड़ी है। एक अन्य सदस्य नियोगी ने गृह विभाग के जिम्मेदार अधिकारियों की कड़ी आलोचना करते हुए उन्हें “डायर ओ डायर” की नस्ल का वर्णन किया। निंदा प्रस्ताव 47 के मुकाबले 55 वोटों से पारित हो गया, जो जतीन्द्रनाथ दास की शहादत के प्रति जनता की गहरी भावनाओं और विरोध का परिचायक था।
गांधी की शिकायत, नेहरू की सफाई
जतीन्द्रनाथ दास के बलिदान और उनके लिए उमड़ी विशाल भीड़ ने स्पष्ट कर दिया कि देशवासियों के दिलों में क्रांतिकारियों के लिए गहरी श्रद्धा और सम्मान है। जनभावनाएँ इस बात की गवाह थीं कि क्रांतिकारियों के कार्यों का प्रभाव कितना गहरा और स्थायी था।
हालांकि, गांधीजी इस स्थिति से संतुष्ट नहीं थे। उन्होंने कांग्रेस बुलेटिन में भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त के संयुक्त बयान के प्रकाशन को लेकर नाराजगी जाहिर की। यही बयान विधानसभा में फेंके गए पर्चों पर दर्ज था। गांधीजी ने महासचिव जवाहरलाल नेहरू को पत्र लिखकर अपनी असहमति व्यक्त की।
जवाहरलाल नेहरू ने स्पष्टीकरण में लिखा, “सच्चाई तो यह है कि मैं भूख हड़ताल के पक्ष में नहीं हूं। इस मुद्दे पर मुझसे मिलने आए कई युवाओं से मैंने यही बात कही। लेकिन सार्वजनिक रूप से भूख हड़ताल की निंदा करना उचित नहीं समझा गया।”
नेहरू जी की बातों से साफ था कि उनका समर्थन सीमित था, और सार्वजनिक आलोचना के बजाय उन्होंने मुद्दे को व्यक्तिगत और आंतरिक रूप से हल करने की कोशिश की।
असहमतियों के बावजूद क्रांतिकारी करते थे गांधीजी का सम्मान
जतीन्द्रनाथ दास की मृत्यु के बाद, पाँच अन्य अनशनकारियों ने अपनी भूख हड़ताल समाप्त कर दी, लेकिन भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त की दृढ़ता में कोई बदलाव नहीं आया। 5 अक्टूबर 1929 को, उनके अनशन का 116वाँ दिन था। समर्थन में कई कैदी फिर से भूख हड़ताल पर चले गए। कांग्रेस पार्टी ने एक प्रस्ताव पारित कर भूख हड़ताल समाप्त करने की अपील की। भगत सिंह के पिता, सरदार किशन सिंह, इस प्रस्ताव को लेकर जेल पहुंचे। उस दिन, भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने अपना उपवास तोड़ते हुए संदेश दिया, “अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के प्रस्ताव के तहत हमने अपनी भूख हड़ताल स्थगित करने का निर्णय लिया है। हम उन लोगों के बारे में चिंतित हैं जिन्होंने हमारी सहानुभूति को ठुकरा दिया है। कृपया उन्हें भी अपना उपवास समाप्त करना चाहिए।”
भले ही क्रांतिकारी गांधीजी की अहिंसा से स्वतंत्रता की उम्मीद नहीं रखते थे और उन्हें “असंभव दूरदर्शी” मानते थे, लेकिन वे कांग्रेस नेताओं का गहरा सम्मान करते थे। महात्मा गांधी के खिलाफ प्रतिकूल टिप्पणियों के बावजूद, उनके मन में गांधीजी के प्रति अत्यधिक सम्मान था। वे देश में जागृति लाने के लिए गांधीजी को सलाम करते थे और उनकी गतिविधियों के प्रति समर्पित थे।
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