Parsi funeral: भारत के प्रसिद्ध उद्योगपति रतन टाटा का निधन मुंबई के ब्रीच कैंडी हॉस्पिटल में हो गया, जिससे देशभर में शोक की लहर दौड़ गई। वे 86 वर्ष के थे और उनके योगदान को सभी ने सराहा है। रतन नवल टाटा को भारत के दो उच्चतम नागरिक पुरस्कार—पद्म भूषण (2000) और पद्म विभूषण (2008)—से सम्मानित किया गया था। उनकी पहचान न केवल एक सफल व्यवसायी के रूप में है, बल्कि एक संवेदनशील और समर्पित व्यक्ति के रूप में भी है, जिसने कई लोगों की ज़िंदगियों को प्रभावित किया।
Parsi funeral: क्या रतना टाटा का अंतिम संस्कार पारसी परम्परा के अनुसार होगा ?
आज, गुरुवार को, रतन टाटा का अंतिम संस्कार पारसी रीति-रिवाजों के अनुसार किया जाएगा। उनका पार्थिव शरीर कोलाबा स्थित उनके निवास से वर्ली के श्मशान घाट ले जाया जाएगा। इस दौरान, सुबह लगभग 10:30 बजे, उनका पार्थिव शरीर एनसीपीए लॉन में रखा जाएगा, ताकि लोग उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित कर सकें। यह क्षण उनके परिवार और प्रशंसकों के लिए बेहद भावुक होगा, जहां हर कोई उनकी यादों में खो जाएगा।
Parsi funeral: अंतिम यात्रा का सफर
शाम करीब 4 बजे, रतन टाटा का पार्थिव शरीर अंतिम संस्कार के लिए नरीमन पॉइंट से वर्ली श्मशान प्रार्थना हॉल की ओर यात्रा करेगा। इस दौरान, पार्थिव शरीर को राष्ट्रीय ध्वज में लपेटा जाएगा, और पुलिस द्वारा दी जाने वाली सलामी के साथ उनका अंतिम संस्कार किया जाएगा। यह न केवल उनके प्रति सम्मान का प्रतीक होगा, बल्कि उनके प्रति देश के लोगों की कृतज्ञता का भी एक प्रतीक होगा। इस भावनात्मक क्षण में, हर कोई रतन टाटा की महानता और उनके द्वारा छोड़ी गई विरासत को याद करेगा।
Parsi funeral: पारसियों में अंतिम संस्कार की 3,000 साल पुरानी अनूठी परम्परा
रतन टाटा का अंतिम संस्कार पारसी रीति-रिवाजों के अनुसार होगा, जो उनके धार्मिक और सांस्कृतिक विरासत का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। पारसियों के अंतिम संस्कार की परंपरा लगभग 3,000 साल पुरानी है, और यह हिंदू, मुस्लिम और ईसाई रिवाजों से पूरी तरह भिन्न है। पारसी समाज में शवों को न जलाया जाता है और न ही दफनाया जाता है, जिससे यह एक अनूठी और अलग प्रक्रिया बन जाती है।
Parsi funeral: क्या होता हैं टावर ऑफ साइलेंस ?
पारसियों के लिए, अंतिम संस्कार की प्रक्रिया को “टावर ऑफ साइलेंस” या दखमा कहा जाता है। यह एक गोलाकार खोखली संरचना होती है, जहां मृत शरीर को खुले में रखा जाता है। इस प्रक्रिया को दोखमेनाशिनी (Dokhmenashini) कहा जाता है, जिसमें शव को आकाश में शुद्ध करने के लिए छोड़ दिया जाता है। यह विधि प्रकृति के प्रति उनके सम्मान और जीवन के चक्र का प्रतीक है।
जब किसी व्यक्ति का निधन होता है, तो उसके शव को शुद्ध करने की प्रक्रिया के बाद टावर ऑफ साइलेंस में रखा जाता है। यह अंतिम यात्रा न केवल मृतक की आत्मा के लिए, बल्कि जीवित परिवार के सदस्यों के लिए भी एक भावनात्मक अनुभव होता है। पारसी समाज में यह मान्यता है कि शव को सूरज और मांसाहारी पक्षियों के हवाले करने से आत्मा को शांति मिलती है। इस परंपरा में जीवन के समाप्त होने के बाद भी एक नई शुरुआत की भावना निहित होती है, जो पारसियों की आध्यात्मिकता और प्रकृति के प्रति गहरे संबंध को दर्शाती है।
इस अनूठे अंतिम संस्कार की प्रक्रिया को देखते हुए, हम यह महसूस करते हैं कि रतन टाटा की विदाई भी इसी पारसी परंपरा का हिस्सा होगी, जो उनकी अद्वितीय जीवन यात्रा का सम्मान करेगी।
Parsi funeral: टॉवर ऑफ साइलेंस का घटता चलन
हालांकि पारसी धर्म में ‘टॉवर ऑफ साइलेंस’ की परंपरा का महत्व सदियों पुराना है, लेकिन अब इस प्रथा का चलन धीरे-धीरे कम होता जा रहा है। बीबीसी की रिपोर्ट के अनुसार, पारसी समुदाय के लोग बताते हैं कि अब टॉवर के आस-पास की आबादी में वृद्धि हो रही है, जिससे इस अनूठी विधि का पालन करना प्रैक्टिकल नहीं रह गया है।
Parsi funeral: गिद्धों का अभाव और उसके परिणाम
एक समय था जब शवों को खुले में छोड़ने के लिए गिद्धों की भरपूर संख्या होती थी, लेकिन अब वे भी कम नजर आते हैं। इस स्थिति के कारण शवों को प्राकृतिक रूप से डिकंपोज़ करना संभव नहीं रहा, जिससे पारसी समुदाय को अपनी परंपरा में बदलाव लाने की आवश्यकता महसूस हो रही है।
Parsi funeral: पारसी समुदाय की संख्या और स्थान
भारत में पारसी धर्म को मानने वालों की संख्या लगभग 70,000 है, जिनमें से अधिकांश मुंबई में रहते हैं। इसके अलावा, कोलकाता, गुजरात और चेन्नई में भी पारसी समुदाय के लोग निवास करते हैं। भारत में दो ‘टॉवर ऑफ साइलेंस’ हैं, जिनमें से एक मुंबई में स्थित है।
Parsi funeral: सांस्कृतिक विरासत का संकट
यह बदलाव केवल एक धार्मिक परंपरा की कहानी नहीं है, बल्कि एक सांस्कृतिक विरासत के संकट का भी संकेत है। जैसे-जैसे समय आगे बढ़ता है और शहरीकरण बढ़ता है, पारसी समुदाय को अपनी परंपराओं को बनाए रखने के लिए नए तरीके तलाशने होंगे। यह भावनात्मक दृष्टिकोण हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि हमारी सांस्कृतिक पहचान को संरक्षित रखना कितना महत्वपूर्ण है।
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