Warli painting: भारत, कला और समृद्धि की दृष्टिकोण से एक समृद्धशाली देश रहा हैं। इस देश की भूमि पर प्राचीन काल से ही कई समृद्ध परम्पराओं ने जन्म लिया है। यह संस्कृति और परम्परा किसी विलासितापूर्ण उदेश्य से नहीं बल्कि आम जीवन से जुड़ी हुई प्रतीत होती हैं। आज इस लेख में हम भारत की संस्कृति और परंपरा का अहम हिस्सा रही, वारली पेंटिंग के इतिहास, उत्पत्ति और महत्व के बारे में चर्चा करेंगे।
Warli painting: वारली पेंटिंग का इतिहास और महत्व
वारली पेंटिंग को इतिहास की सबसे पुरानी कलाओं में से एक माना जाता है। यह आदिवासी कला का एक रूप है जिसकी उत्पत्ति भारत के महाराष्ट्र राज्य से हुई है। यह कला आदिवासी समुदाय के बीच बहुत लोकप्रिय है, हालाँकि आज तक इसे भारत के बाहर कोई विशेष मान्यता नहीं मिली है।
वारली पेंटिंग(Warli painting) आदिवासी कला की एक शैली है जिसे ज़्यादातर भारत में उत्तरी सह्याद्री पर्वतमाला के आदिवासी लोगों द्वारा बनाया जाता है। इस पर्वतमाला में पालघर जिले के दहानू, तलासरी, जौहर, पालघर, मोखाडा और विक्रमगढ़ जैसे शहर शामिल हैं। इस आदिवासी कला की उत्पत्ति महाराष्ट्र में हुई थी, जहाँ आज भी इसका अभ्यास किया जाता है।
Warli painting: 1970 के दशक तक नहीं मिली कोई मान्यता
वारली जनजाति भारत में सबसे बड़ी जनजातियों में से एक है, जो मुंबई के नजदीक स्थित है। भारत के सबसे बड़े शहरों में से एक के करीब होने के बावजूद भी वारली संस्कृति और इसकी चित्रकला की शैली को 1970 के दशक तक मान्यता नहीं मिली थी। लगभग 3000 ईसा पूर्व से शुरू हुई इस कला रूप में एक रहस्यमय आकर्षण है।
वारली संस्कृति किस अवधारणा के इर्द-गिर्द केंद्रित है?
वारली पेंटिंग(Warli painting) में प्रकृति माँ और उसके तत्व अक्सर दर्शाए गए मुख्य केंद्र बिंदु होते हैं। खेती उनके जीवन का मुख्य व्यवसाय है और जनजाति के लिए भोजन का एक बड़ा स्रोत वन है। ये आदिवासी जीवन के लिए प्रदान किए जाने वाले संसाधनों के लिए प्रकृति और वन्यजीवों का बहुत सम्मान करते हैं। वारली कलाकार अपनी मिट्टी की झोपड़ियों को सजाने के लिए इन चित्रों को पृष्ठभूमि के रूप में उपयोग करते हैं, ठीक उसी तरह जैसे प्राचीन लोग करते थे, गुफा की दीवारें को कैनवस के रूप में।
Warli painting: रोज़मर्रा की जिंदगी में वारली
लाल गेरू की दीवारों पर सफ़ेद रंग से चित्रित असाधारण वारली आकृतियाँ अप्रशिक्षित(Untrained) आँखों को कुछ ख़ास नहीं लग सकती हैं। लेकिन नज़दीक से देखने पर आपको पता चलेगा कि वारली में जो दिखता है, उससे कहीं ज़्यादा है। यह सिर्फ़ एक कला का रूप नहीं है, बल्कि महाराष्ट्र और गुजरात की सीमाओं के आस-पास के पहाड़ों और तटीय क्षेत्रों से वारली (वरली) जनजातियों के लिए जीवन जीने का एक तरीका है।
फूलों, शादी की रस्मों, शिकार के दृश्यों और अन्य रोज़मर्रा की गतिविधियों के जटिल यह ज्यामितीय पैटर्न आज-कल फैशन डिजाइनरों और होम डेकोर ब्रांडों के बीच काफी लोकप्रिय हैं। गुजरात और महाराष्ट्र के लोगों में निश्चित रूप से इस कला के प्रति सम्मान की भावना है। क्योंकि उन्होंने इसे आधुनिक जीवन शैली के उत्पादों पर लोकप्रिय होने से बहुत पहले ग्रामीण स्कूलों और घरों की दीवारों पर देखा है।
Warli painting: लाल गेरू की दीवारों पर सफेद रंग
परंपरागत रूप से, यह पेंटिंग लाल गेरू की पृष्ठभूमि पर सफ़ेद रंग से की जाती है और इसमें केवल दो रंगों का इस्तेमाल किया जाता है। लेकिन, आजकल, कपड़ों, घर की सजावट या अन्य कलात्मक रूपों पर भी इन सुन्दर रूपांकनों को दोहराने के लिए कई तरह के रंगों का इस्तेमाल किया जा रहा है।
Warli painting: वारली, महज एक कला नहीं
वारली कला(Warli painting) कुछ हद तक हमें पर्यावरण के प्रति जागरूक होने और जीवन की सरल चीजों में आनंद खोजने के बारे में सोचने पर मजबूर करती है। वारली जनजाति के लोग काफी सरल जीवन जीते हैं। पहले, वे प्रकृति की पूजा करते है और फिर भोजन या रोजमर्रा की जिंदगी में व्यस्त होते है। वे प्रकृति को नुकसान पहुंचाने या जरूरत से ज्यादा लेने में विश्वास नहीं करते है। वारली लोग प्रकृति और मनुष्य के बीच सामंजस्य में विश्वास करते हैं, और ये विश्वास अक्सर उनकी पेंटिंग में झलकता है।
यह विचारधारा आज हमारे जीवन के लिए भी सही है। बहुत से शहरी लोग अब जहाँ तक संभव हो तकनीक से दूर रहकर, स्वच्छ भोजन करके और प्राचीन रीति-रिवाजों और परंपराओं के पीछे के विज्ञान को करीब से देखकर बेहतर जीवनशैली अपना रहे हैं। इसलिए, यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि वारली जैसी पारंपरिक कलाएँ हमारे समाज में वापस आ रही हैं और हमें जीवन के सरल सुखों की याद दिला रही हैं।
जनजातियों ने ज्ञान प्रदान करने के लिए वारली चित्रकला का भी उपयोग किया है। आज, यह चित्रकला के अन्य रूपों के बीच एक अलग पहचान रखता है, जिसमें जिव्या माशे(Jivya Soma Mashe (जिव्य सोमा माशे)) और उनके बेटे बालू और सदाशिव जैसे महाराष्ट्रीयन कलाकार इस कला रूप को जीवित रखने के लिए कड़ी मेहनत कर रहे हैं। 2011 में जिव्या माशे को इस कला रूप को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रिय बनाने के लिए पद्म श्री से सम्मानित किया गया है।
‘अतिशयता की दुनिया में, सादगी एक दुर्लभ वस्तु’
फरवरी 2016 में, जापानी कलाकारों के एक समूह ने कला के इस रूप को जीवित रखने के प्रयास में पालघर जिले के गंजड़ गांव को गोद लिया है। जापान के सामाजिक कलाकारों का यह समूह दीवारों पर पेंटिंग को बढ़ावा देने के लिए गाय के गोबर, मिट्टी और बांस की छड़ियों से झोपड़ियाँ भी बना रहा है। दहानू, एक गाँव है जो वारली कला को जीवित रखने में कामयाब रहा है। अतिशयता(excessiveness) की दुनिया में, सादगी एक दुर्लभ वस्तु है और यह कला उस विश्वास को जीवित रखता है। इसलिए, हाथ से पेंट की गई वारली वस्तुओं को खरीदना और उनका प्रचार करना इस अनूठी कला रूप के लिए एक उपयुक्त श्रद्धांजलि की तरह लगता है।
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